क्यों कहना पड़ा मुख्यमंत्री को! स्वतंत्रता दिवस सरकारी आयोजन भर बनकर न रह जाए

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देश से लेकर प्रदेश तक केंद्र एवं प्रांतीय सरकारों ने एक सप्ताह का हर घर तिरंगा अभियान अस्तित्व में बनाए रखा है। इस अभियान के तहत विभिन्न स्थानों से तिरंगा रैलियां निकाली जा रही हैं। इनके माध्यम से आजादी के त्यौहार को लेकर एक उत्साह का वातावरण निर्मित किया जा रहा है। वहीं यह अपील की जा रही है कि देश की आजादी के इस त्यौहार को सभी लोग अपने घर पर तिरंगा झंडा फहराकर मनाएं। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री डॉक्टर मोहन यादव ने अपील की है और आगाह भी किया है कि हर घर तिरंगा अभियान और स्वतंत्रता दिवस का पर्व सरकारी आयोजन भर बनकर न रह जाए। इसे जन-जन का त्यौहार लगना चाहिए। हम सब स्वतंत्रता दिवस को ठीक वैसे ही मनाएं जैसे होली दीपावली और रक्षाबंधन का पर्व मानते आए हैं। मुख्यमंत्री डॉक्टर मोहन यादव की बात एकदम उचित है। उनकी अपेक्षाएं भी गलत नहीं हैं। किसी भी देश की आजादी का विषय वाकई में इतना महत्वपूर्ण होता है, जैसे खुली हवा में सांस लेने का अनुभव। लेकिन एक सवाल मन को कचोटता है, वह यह कि जब देश को आजाद हुए 70 साल से ज्यादा का समय गुजर चुका है तब भी एक प्रदेश के मुख्यमंत्री को यह आशंका व्यक्त करनी पड़ रही है कि कहीं स्वतंत्रता दिवस का त्योहार सरकारी आयोजन भर बनकर न रह जाए। या फिर यह अपेक्षा की जा रही है कि स्वतंत्रता दिवस का त्यौहार जन जन का त्यौहार है, ऐसा लगना चाहिए। आशय स्पष्ट है, हमारा यह पावन दिवस अभी भी जन-जन का त्यौहार नहीं बन पाया। उदाहरण के लिए- दीपावली होली या रक्षाबंधन जैसे त्योहार जब पास आने लगते हैं तब समूचा परिवार, रिश्तेदार, अड़ोस पड़ोस के रहवासी एवं समूचा समाज इन त्योहारों को मनाने की तैयारी में जुट जाता है। जैसे दिवाली पर घरों दुकानों की सफाई की जाती है। नए कपड़े सिलाए जाती हैं और सामर्थ्य अनुसार पकवान बनाकर आतिशबाजी चलाई जाती है। होली आती है तब लोग पहले से ही सोचने लगते हैं, जब रंग खेलेंगे तब कौन से कपड़े पहनने हैं और अच्छा रंग कौन सा रहेगा। इसे कहां से खरीदना है इस बार होली किसके साथ खेलने में मजा आएगा। रक्षाबंधन को लेकर भाइयों और बहनों में बहुत स्पष्ट उत्साह देखने को मिलता है। बेटियां बहुत पहले से ही अपने माता-पिता के घर जाने की तैयारी करने लगती हैं। किसके लिए क्या उपहार लेकर जाना है यह विचार साकार होने लगते हैं। माता-पिता हों या फिर भाई भावज, सभी को बेटियों का सावन के महीने में बेसब्री से इंतजार रहता है। कुल मिलाकर यह ऐसे लक्षण हैं जो त्योहारों के आने से पहले परिलक्षित होने लगते हैं। अर्थात इन लक्षणों को देखकर यह लगने लगता है कि हां त्यौहार आ रहा है। लेकिन स्वतंत्रता दिवस को लेकर भारतीय समाज ऐसी कोई तैयारी करता है या इसे मनाए जाने को लेकर नई-नई कल्पनाएं रचता है तो खेद के साथ कहना पड़ेगा कि ऐसा नहीं है। आजादी के सात दशक बीत जाने के बाद भी इस त्यौहार को ज्यादातर राजनेता नौकरशाह और शासन में बैठे लोग ही बना रहे हैं। अभी यह जन-जन का त्यौहार नहीं बन पाया है। आम आदमी की इसमें सहभागिता बस इतनी सी है कि वह जिला, प्रदेश और राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित समारोहों में अपने नेताओं के भाषण सुनने और उससे भी ज्यादा उसके बाद निकलने वाली झांकियां को निहारने पहुंचता है। फौरी तौर पर लगाए गए मेलों में थोड़ा बहुत पैसा खर्च करके घर लौट आता है और फिर इस अवसर पर प्राप्त अवकाश को एंजॉय करता है। मेरे ख्याल से यह सब इसलिए है, क्योंकि हमने आजादी के बारे में भारतीय समाज को सही जानकारी दी ही नहीं। बड़े लंबे अंतराल तक उन्हें यही पढ़ाया जाता रहा कि हमें आजादी अहिंसा से मिली है। अहिंसा का मतलब, देश को आजाद करने के लिए ना खून बहा और ना बहाया गया।बस हमने आग्रह किया और शत्रु चले गए, अहिंसा का मतलब इतना भर होता है। और फिर एक गाना हर 15 अगस्त पर बजाया जाता है “दे दी हमें आजादी बिना खड्ग बिना ढाल, साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल” यह बात भले ही झूठी ना हो, लेकिन पूरी तरह सच्ची भी नहीं है। यही वे अधूरी जानकारियां हैं जिनके चलते आजादी के बाद जन्म लेने वाली भारतीय पीढ़ी आजादी का मोल समझ ही नहीं पाई। वह यह जान ही नहीं पाई की हमारे देश पर बलात् शासन करने वाले विदेशी आक्रांताओं ने लाशों से कुएं भर दिए। हमारे जिन रण बांकुरों ने आजादी मांगी या उसे प्राप्त करने लड़ने का प्रयास किया, उन्हें फांसी पर लटका दिया गया। उनकी गर्दनें में काट दी गईं, आग में जला दिया गया। लोगों को इनकी शहादत का पता ना चले, इसलिए कई कई बार उनकी लाशें हमारे देश की महा नदियों में बहा दी गईं। सुभाष चंद्र बोस, चंद्रशेखर आजाद, सरदार भगत सिंह, रानी लक्ष्मीबाई, ऐसे हजारों लाखों स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने अपने और दुश्मनों के खून की नदियां बहा दीं। तब कहीं जाकर हमें आजादी नसीब हो पाई। यह आजादी भी ऐसी नहीं आई जिसके मिलने पर हम खुशियां मना पाते। इसके प्राप्त होने से पहले देश को दो भागों में विभाजित कर दिया गया‌। देश के तत्कालीन नेतृत्वकर्ताओं ने सत्ता की लोलुपता के चलते भारत को दो टुकड़ों में बंट जाने दिया। यह बंटवारा भी इतने वीभत्स तरीके से हुआ कि आजादी का मुंह देखने से पहले हमें अपने ही भाई बंधुओं की लाशों के ढेर देखना पड़ गए। क्या मर्द और क्या औरतें, इनके खून से लथपथ लाशों से भरी रेल गाड़ियों को हमने अस्तित्व लेने जा रहे भारत और पाकिस्तान के बीच चीत्कारते हुए देखना पड़ गया। इसके बाद हमें 15 अगस्त सन 1947 को आजादी प्राप्त हुई। एक खंडित आजादी, खून से लथपथ वीभत्स आजादी। एक ख्याल मन में आता है, यदि इस इतिहास को हम स्कूलों कॉलेजों में पढ़ा पाते तो वर्तमान भारतीय समाज को समझ में आता कि आजादी केवल जिंदाबाद और मुर्दाबाद के नारे लगाने भर से नहीं मिल गई। अंग्रेजों भारत छोड़ो जैसे नारे लगाने मात्र से शत्रु देश छोड़कर नहीं भाग गया। सच तो यह है कि वह इज्जत बचाकर तब भागा जब उसे समझ में आ गया कि “तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा” जैसी रीत को मानने वाले क्रांतिकारी जान देने और जान लेने पर अमादा है। ये हर कीमत पर आजादी हासिल करना चाहते हैं और ये सफल हो जाएंगे। इस बात का अहसास होते ही अंग्रेजों के सामने बस एक ही रास्ता रह गया था, किसी प्रकार अपना सम्मान बचाकर भारत से पलायन कर लिया जाए। बस यही कारण रहा कि उन्होंने एक अंग्रेज द्वारा ही स्थापित संगठन द्वारा छेड़े जा रहे अहिंसक आंदोलन को जानबूझकर वैश्विक स्तर पर प्रचारित प्रसारित किया। फिर यह प्रदर्शन किया कि हम इन भारतीयों की अनुनय विनय से द्रवित हैं। हमारा हृदय इनकी अहिंसा से पिघला जाता है। इसलिए हम इन पर दया करके वापस ब्रिटेन लौट रहे हैं। दुख का विषय यह है कि हमारे नौनिहालों को आज भी ज्यादातर स्कूलों और कॉलेज में यही अधूरा सच पढ़ाया जा रहा है। दावे के साथ लिखा जा सकता है, यदि उन कड़वी सच्चाइयों को सामने रखा जाए, जिन्होंने हमारे सैकड़ो और हजारों नहीं लाखों रण बांकुरे और वीरांगनाएं छीन लीं। कई स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को तो अंतिम संस्कार तक नसीब नहीं हुआ। उन्होंने अपनी जान की परवाह न करते हुए इस देश के लिए अपनी गर्दनें कटा दीं। जब ये सच्चाइयां हम लोगों के जेहन में स्थान ग्रहण करेंगी तब हमें अपने आप समझ में आएगा कि यह आजादी कितनी कीमती है और इसे प्राप्त करने के लिए हमारे पूर्वजों ने कितना महंगा मोल चुकाया है। जिस दिन भारतीय समाज की समझ में यह पूरी सच्चाई आ जाएगी उस दिन के बाद हमारे किसी भी प्रधानमंत्री अथवा मुख्यमंत्री को हर घर तिरंगा अभियान नहीं छेड़ना पड़ेगा। लोग स्वेच्छा से अपने घरों पर केवल तिरंगा ही नहीं लहराएंगे, बल्कि वे इस त्यौहार को ठीक उसी तरह मनाने की भावना अपने भीतर पैदा कर पाएंगे, जिस उत्साह के साथ हमारे देश में दीपावली होली और रक्षाबंधन मनाए जाते हैं।

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