येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबलः। तेन त्वाम् अभिबध्नामि रक्षे मा चल मा चल

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यह वह मंत्र है जिसे रक्षा सूत्र बांधते समय श्रद्धा के साथ उच्चारित किया जाता है। जहां तक रक्षाबंधन की बात है तो अधिकांश लोग इस मायने में ना तो इस मंत्र को पूरी तरह जानते हैं और ना ही उन्हें इसका मतलब पता है। इससे भी बड़ा कारण यह है कि हम लोगों को संस्कृत का ज्ञान बहुत थोड़ा रह गया है। यही वजह है कि रक्षाबंधन के दिन इस मंत्र का अधिकांश घरों में उच्चारण नहीं किया जाता। गनीमत है कि पांडित्य और पुरोहित कार्यों में संलग्न ब्राह्मणों ने संस्कृत का साथ नहीं छोड़ा, जिसके चलते यह मंत्र अस्तित्व में बना रहा। फल स्वरुप किसी भी पूजा अर्चना में जब ब्राह्मण द्वारा यजमान को रक्षा सूत्र बांधा जाता है, तब इस मंत्र का पूरी सावधानी के साथ उच्चारण किया जाता है। जाहिर है ब्राह्मण लोग इस मंत्र का अर्थ भी जानते हैं, संभवत: इसलिए भी यह मंत्र और अधिक निष्ठा एवं प्रमुखता के साथ उच्चारित किया जाता है। उक्त मंत्र का भावार्थ कुछ इस प्रकार है –
जिस प्रकार से बली राजा को बंधन में बांधा गया था, उसी प्रकार वह दिव्य शक्तियों से सुरक्षा का आशीर्वाद मांगता है और चाहता है कि वह सुरक्षा उसे स्थायी रूप से बांधे रखे, जिससे कोई भी नकारात्मक शक्ति या बुराई उसे छू न सके। मतलब साफ है जो भी व्यक्ति रक्षा सूत्र बांधते समय इस मंत्र का उच्चारण कर रहा है, तो वह रक्षा सूत्र बंधवाने वाले व्यक्ति से आश्वस्त होना चाहता है कि जिस प्रकार राजा बलि ने महालक्ष्मी के रक्षा सूत्र से बंध कर उन्हें सुरक्षा का आश्वासन दिया और वे सदैव ही उस बंधन से बंधे रहे, उसी तरह का आश्वासन में आपसे यानि रक्षा सूत्र बंधवाने वाले व्यक्ति से चाहता हूं। क्योंकि इस मंत्र का संकल्प ईश्वर को साक्षी मानकर किया जाता है, अतः रक्षा सूत्र बांधने वाला व्यक्ति सामने वाले से अपनी रक्षा बनाए रखने का आश्वासन स्वतः प्राप्त कर लेता है। और विस्तार से लिखा जाए तो इसका मतलब यह है कि जिसने रक्षा सूत्र बंधवा लिया, उसे रक्षा सूत्र बांधने वाले व्यक्ति का आजीवन ध्यान रखना चाहिए और उसकी सुरक्षा का पुख्ता प्रबंध करना चाहिए। इसका मतलब यह भी होता है कि हमने जिससे भी रक्षा सूत्र बंधवाया, जीवन रहने तक हम उसके सुख दुख का ध्यान रखें और आपातकाल में उसकी रक्षा का भार भी उठाएं। प्रत्येक बहन भी इसी भावना से अपने भाई को राखी बांधती है और उसकी ओर से आश्वस्त होना चाहती है कि वह सदैव ही उसके हितों का ध्यान रखेगा और आवश्यकता पड़ने पर उसकी हर प्रकार से रक्षा भी करेगा। अब सवाल यह उठता है कि उक्त मंत्र की प्रधानता स्थापित क्यों हुई और इसकी शुरुआत का कारण क्या है। यह मामला दैत्यों को लेकर देवताओं के मन में स्थापित असुरक्षा के भाव से जुड़ा हुआ है। भक्त प्रहलाद के पौत्र राजा बलि तब राक्षसों के राजा हुआ करते थे। धार्मिक प्रवृत्ति के चलते उन्होंने 99 यज्ञ कर लिए थे। जब सौ वां महायज्ञ का आयोजन हुआ तब राक्षसों में यह भय फैल गया कि राजा बलि ने यह यज्ञ भी पूर्ण कर लिया तो फिर चहुं ओर राक्षसों की सत्ता स्थापित हो जाएगी। तब विष्णु भगवान बामन का रूप धरकर राजा बलि से भिक्षा मांगने पहुंचे और राजा बलि से तीन पग भूमि मांगली। दान धर्म में अनुरक्त राजा बलि ने जैसे ही दान का संकल्प लिया, भगवान विष्णु ने विराट रूप धरकर दो पग में धरती आकाश नाप लिए और तीसरा पग राजा बलि के सिर पर रख दिया। इस प्रकार भगवान विष्णु ने राजा बलि को पाताल में भेज दिया। राजा बलि ने इस अवस्था को सहर्ष स्वीकार किया तो भगवान ने प्रसन्न होकर राजा बलि को वरदान मांगने के लिए कहा तो उसने प्रार्थना कर ली कि जब भी नेत्र खोलूं मुझे आपके साक्षात दर्शन हों। इस वरदान से बंध कर भगवान विष्णु को पाताल लोक में ही निवास करना पड़ गया। काफी अंतराल बीत जाने पर लक्ष्मी जी को चिंता हुई तो वह एक असहाय स्त्री के रूप में राजा बलि के यहां पहुंचीं। उन्होंने राजा बलि से कहा कि उनका पति परिस्थिति वश अन्यत्र कैद है। तुम्हें मेरे पति को मुझे वापस दिलाकर अपना राज धर्म निभाना चाहिए। राजा बलि अपने वचन से ना फिर जाएं, इस आशंका के चलते महालक्ष्मी ने उन्हें रक्षा सूत्र बांधकर संकल्पित किया। उसके बाद बताया कि मैं लक्ष्मी हूं और मेरे पति श्री हरि विष्णु आपके यहां निवास करने को विवश हैं । अतः आप अपने संकल्प के अनुसार उन्हें अभी मुक्त करें। तब राजा बलि ने प्रसन्नता के साथ भगवान विष्णु को समस्त बंधनों से मुक्त किया जिसके चलते वे वापस बैकुंठ को लौट सके। तभी से रक्षा सूत्र बांधने के साथ उपरोक्त मंत्र प्रचलन में आया, जो इस लेख के प्रारंभ में प्रकाशित किया गया है। कथाएं तो और भी बहुत सारी हैं, किंतु रक्षा सूत्र के साथ मंत्र एक ही पढ़ा जाता है। इस दृष्टि से देखा जाए तो राजा बलि, भगवान विष्णु, वामन अवतार और महालक्ष्मी की यह संयुक्त कथा रक्षाबंधन के प्रसंग में प्रधानता रखती है। अब सवाल उठता है कि यह रक्षा बंधन का पर्व भाई बहन के त्यौहार में कैसे परिवर्तित हो गया। इसका जवाब यह है कि जब मुगल शासक बहादुर शाह ने चित्तौड़गढ़ पर हमला किया, तब वहां की रानी कर्णावती ने विषम परिस्थितियों को भांपते हुए हुमायूं से सैन्य सहायता मांगी थी। उन्हें यह सहायता हर हाल में उपलब्ध हो ही जाए, इसके लिए दूत के हाथों एक राखी भी भेजी और कहा कि यह राखी मेरी ओर से हुमायूं को बांधी जाए। उन्हें बताया जाए कि एक बहन अपने भाई से स्वयं की रक्षा के लिए आश्वस्त होना चाहती है। ऐसा करने पर हुमायूं ने रानी कर्णावती को अपनी बहन मानते हुए उन्हें सैन्य सहायता उपलब्ध कराई और चित्तौड़गढ़ की बहादुर शाह से रक्षा की। तब से मेवाड़ और राजस्थान में बहन की ओर से भाई और भावज को राम राखी, चूड़ाराखी और लूंबा बांधने का रिवाज प्रारंभ हुआ जो आज तक बना हुआ है। कुछ पौराणिक कथाओं में भी बहन द्वारा भाई को राखी बांधे जाने के प्रसंग स्मरण में आते हैं। लेकिन तात्कालिक कथाओं में रानी कर्णावती और हुमायूं के प्रसंग ने इस त्यौहार को खास तौर पर भाई और बहन के पर्व के रूप में अत्यंत लोकप्रिय बना दिया। वर्ना यह रक्षा सूत्र हर उस व्यक्ति को अपने से अधिक समर्थ्यवान अथवा वरिष्ठ व्यक्ति को बांधने का शाश्वत अधिकार मिला हुआ है, जो अपनी सुरक्षा के लिए अपने से अधिक समर्थ्यवान व्यक्ति से आश्वस्त होना चाहता है। लिखने का आशय है कि रक्षाबंधन त्यौहार के व्यापक मायने हैं। इसे व्यापक स्तर पर मनाए जाने की आवश्यकता है। इससे दीन हीन व्यक्ति अथवा समाज को सामर्थ्यवान व्यक्ति अथवा समुदाय से रक्षित होने की सुनिश्चितता बनी रहने वाली है। आप सभी को रक्षाबंधन की अनंत शुभकामनाएं

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