भारतीय जनता पार्टी, वर्ष 1980 से पहले जिसका राजनीतिक क्षितिज पर कहीं अस्तित्व तक नहीं था। वह पार्टी राजनीतिक क्षेत्र में विश्व की सबसे बड़ी पार्टी कहलाई जाने लगी है। जबकि देश को आजादी दिलाने का दावा करने वाली भारत की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस का हाल यह है कि उसे अधिकांश राज्यों में अपने से छोटे क्षेत्रीय दलों के इशारे पर नाचने को मजबूर होना पड़ रहा है। इन दोनों विपरीत अवस्थाओं पर गौर करने के बाद यह लिखने का मन बना कि यह जो कुछ भी देखने को मिल रहा है, वह इन दोनों राजनीतिक दलों की कार्य प्रणाली का ही परिणाम है। लेकिन राजनीति में वह सत्य और सुचिता अब नहीं रहे, जिसके दृष्टिगत कोई राजनीतिक क्षत्रप आगे आकर यह स्वीकार करने का दुस्साहस दिखाए कि हां उसका कार्य करने का ढंग ठीक नहीं रहा होगा। हम अपनी कार्य प्रणाली का अध्ययन करेंगे और पार्टी की भलाई के लिए जो भी सुधार अपेक्षित होंगे उन्हें अमल में लाया जाएगा। शुरुआत भारतीय जनता पार्टी से करेंगे। यह वह पार्टी है जो पूर्व में भारतीय जन संघ के नाम से पूरे देश में सक्रिय बनी रही। जी तोड़ प्रयास और गजब के जन आंदोलनों के बावजूद वह समूचे भारतवर्ष में अपने नेताओं को बतौर जनप्रतिनिधि जिताने में केवल आंशिक रूप से ही सफल हो पाई। वर्ष 1977 में आपातकाल का समूल नाश करने की गरज से भारतीय जनसंघ ने स्वयं को जनता पार्टी में समाहित कर दिया। बेशक उस दल को राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस की चूलें हिलाने में भारी कामयाबी मिली, किंतु तात्कालिक राजनीतिक लाभ के दृष्टिगत मित्र दलों ने ही दोहरी सदस्यता का बहाना बनाकर भारतीय जनसंघ को धोखा दे दिया। फल स्वरुप वर्ष 1980 में भारतीय जनता पार्टी का प्रादुर्भाव हुआ। लगभग 1 दशक तक इस पार्टी ने सड़कों से लेकर संसद तक भारी संघर्ष किया। जनहित के मुद्दे लेकर अनेक आंदोलन स्थापित किये। धारा 370, श्री राम मंदिर और समान नागरिक संहिता, इन तीन मुद्दों को अपने घोषणा पत्रों में स्थाई रूप से शामिल किया। साल के न्यूनतम दो तिहाई दिनों में अति सक्रिय बनी रहने वाली भारतीय जनता पार्टी अपने कार्यकर्ताओं के अथक परिश्रम के चलते पहले दो, फिर 80 से अधिक सांसद जिताने में सफल रही। उसके बाद भाजपा की जीत के सफर ने ऐसी रफ्तार पकड़ी की पहले अटल सरकार और फिर मोदी सरकार ने नवाचार स्थापित करने के मामले में पार्टी की दशा और दिशा ही बदल दी। अब इस पार्टी की सरकारें देश के अधिकांश राज्यों में स्थापित हैं। जहां कोई कमीबेसी है, वहां मित्र दलों के साथ सरकार चलाते दिखाई दे रही है। कुछ राज्य ऐसे भी हैं जहां भाजपा सत्ता में भले ना हो, लेकिन एक मजबूत विपक्ष के रूप में अपने विरोधियों को चुनौती देती नजर आती है। भारतीय जनता पार्टी की कार्य प्रणाली का अवलोकन करें तो हम पाएंगे कि इसके पदाधिकारी सत्ता में रहें अथवा विपक्ष में, इन्हें हाथ पर हाथ धरकर बैठना बिल्कुल रास नहीं आता। यदि अपवाद स्वरूप कभी उनके व्यवहार में शिथिलता दर्ज होती भी है तो फिर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ओर से प्रति नियुक्ति पर भेजे गए पूर्णकालिक संगठन मंत्री इन्हें फुर्सत में नहीं बैठने देते। यही वजह है कि भाजपा कार्यकर्ता साल के 12 महीने किसी न किसी कार्यक्रम में संलग्न बना रहता है। जब कोई काम नहीं होता तो बैठक ही कर लेते हैं, या फिर वन संचार जैसे कार्यक्रमों के लिए शहर से बाहर कहीं सुनसान स्थान पर निकल जाते हैं। निस्संदेह यहां पर कुछ मौज मस्ती होती है, पिकनिक मनाई जाती है। लेकिन साथ में सामाजिक, प्रादेशिक और राष्ट्रीय स्तर के विभिन्न मसलों पर गंभीर चिंतन भी होता है। इस प्रकार रिचार्ज होकर यह लोग फिर आम आदमी के बीच पूर्व की अपेक्षा और तेजी के साथ सक्रिय हो जाते हैं। वर्तमान परिदृश्य पर गौर करें तो हम पाएंगे कि हाल ही में लोकसभा चुनाव संपन्न हो चुके हैं। अधिकांश राजनीतिक दल अब विभिन्न राज्यों के छोटे-मोटे विधानसभा चुनावों, उपचुनावों तक ही सीमित बने हुए हैं। जबकि भाजपा ने इन सभी मोर्चों पर सक्रिय होते हुए भी अब सदस्यता अभियान का चुनौती पूर्ण कार्य हाथ में ले लिया है। इस कार्यक्रम को लेकर जो सबसे अच्छी बात इस पार्टी ने अपनाई है, वह यह कि कार्यकर्ताओं एवं पदाधिकारियों द्वारा बनाए गए सदस्यों की अब प्रदेश और राष्ट्रीय स्तर पर स्कैनिंग होगी। राजनीतिक क्षेत्र में जो फर्जीवाड़ा सदस्यता समेत विभिन्न मामलों में होता रहा है, वह कम से कम भाजपा स्वीकार करने के मूड में नहीं है। उसने स्पष्ट कर दिया है कि नंबर गेम में अव्वल रहने के लिए की जाने वाली किसी भी प्रकार की अवांछनीय चेष्टा स्वीकार नहीं होगी। जाहिर है भाजपा के कार्यकर्ताओं और पदाधिकारियों को इस बार भी प्राप्त लक्ष्य की पूर्ति के लिए शत प्रतिशत परिणाम देने होंगे। जब यह लेख लिखा जा रहा है तब पार्टी के भोपाल मुख्यालय पर भाजपा के विभिन्न मोर्चों और प्रकोष्ठों के मुखियाओं की बैठक चल रही है। संगठन और सरकार के नुमाइंदों द्वारा लक्ष्य प्राप्ति के लिए आगंतुकों का मार्गदर्शन किया जा रहा है। लिखने का आशय यह कि भाजपा केवल चुनावों तक सीमित नहीं रहती। वह प्रत्येक दिन, हर पल और हर क्षण कुछ नया करने हेतु सक्रिय बनी रहती है। उसी का परिणाम है कि आज उसे विश्व के सबसे बड़े राजनीतिक दल का तमगा मिला हुआ है।
दूसरी ओर कांग्रेस समेत विरोधी दालों की बात करें तो वहां केवल और केवल चुनावी सक्रियता ही दिखाई देती है। अपने नेता के बारे में कुछ अनचाहा सुनने को मिले तो सक्रिय हो जाओ। बैठे-बिठाए कोई मुद्दा सामने वाले की गलती से प्राप्त हो जाए तो सक्रिय हो जाओ। विरोधी दलों की नजर में जैसे राजनीतिक गतिविधियों अर्थात सक्रियता का बस यही मतलब रह गया है। नतीजा यह है कि अधिकांश राजनीतिक दलों की विश्वसनीयता संदेह के घेरों में है। उदाहरण के लिए पहले जन संघ और फिर भाजपा ने अपने जन्म के साथ ही जिन मुद्दों को नीतिगत स्वीकार किया था, उन्हें उसने अभी तक छोड़ा नहीं है। भले ही विरोधी उसे सांप्रदायिक और दक्षिणपंथी कहते रहे, लेकिन उसने अपनी विचारधारा को सटीक एवं स्पष्ट बनाए रखा। उसके उलट अधिकांश विरोधी दल हमेशा इस ताक में बने रहे की कब उन्हें मुस्लिम परस्त दिखाई देना है और कब कपड़ों के ऊपर जनेऊ डालकर खुद को सबसे बड़ा हिंदू प्रमाणित करना है। यह राजनीतिक विडंबना नहीं तो और क्या है, जब हाल ही में लोकसभा चुनाव संपन्न हुए तो विरोधी दलों को एक सफेद झूठ मतदाताओं को भ्रमित करने के लिए प्रस्तुत करना पड़ गया। वह यह कि यदि भाजपा को 400 सीटें मिल गईं तो वह संविधान की हत्या कर देगी। जाहिर है इसका कांग्रेस सहित विरोधी दलों को आंशिक लाभ तो मिला, लेकिन इसके एवज में इन सबको अपनी विश्वसनीयता पर प्रश्न चिन्ह स्वीकारना पड़ गया। मतलब साफ है, देश और प्रदेश के विरोधी दलों को यह झूठ इसलिए बोलना पड़ गया, क्योंकि कार्यकर्ता नाम की जो पूंजी भाजपा ने अपने खजाने में जमा कर ली है, उस पूंजी का उसके विरोधी दलों में नितांत अभाव बना हुआ है। इस बेहद महत्वपूर्ण कमी पर दृष्टिपात करने की बजाय यदि कांग्रेस और अन्य विरोधी दल केवल भाजपा को पानी पी पीकर कोसने में वक्त जाया करते रहे, तो आने वाले दिनों में उनकी राह और कठिन होने वाली है। अच्छा तो यही है कि कांग्रेस एवं अन्य विरोधी दल अपनी सांगठनिक संरचना की व्यापकता और राजनीतिक ईमानदारी पर ज्यादा फोकस करें। यदि उन्हें भाजपा से आगे निकलना है तो उससे जलना बंद करें। बल्कि उसकी सक्रियता से सीख लेते हुए उससे बराबरी करने का उद्यम अपनाएं। दावा किया जा सकता है कि इस कार्य प्रणाली से केवल विरोधी दलों का ही नहीं, बल्कि देश का भी भला ही होगा।