किसानों के लिए घातक साबित हो रही कृषि कानूनों की वापसी

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किसानों की आय दुगनी करना भाजपा की केंद्र और राज्य सरकारों का पुराना एजेंडा रहा है। बात मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री डॉक्टर मोहन यादव की हो या फिर देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की, दोनों ही स्तरों पर किसानों के भले की बात की जाती रही है। साथ में यह संकल्प भी दोहराया जाता रहा है कि इन सरकारों द्वारा किसानों की आय दुगनी किए जाने का उद्यम पूरी ताकत के साथ प्रचलन में बना हुआ है। इन्हीं प्रयासों का परिणाम था जब केंद्र की भाजपा सरकार तीन कृषि कानून लेकर आई, जिन में किसानों की भलाई के अनेक प्रावधान थे। लेकिन उक्त कानून से जिन्हें सबसे ज्यादा नुकसान हो रहा था उस वर्ग का नाम था आड़तिया और मुनाफाखोर व्यापारी। इस वर्ग ने भारी फंडिंग के माध्यम से आंदोलनजीवी किसान नेताओं को उकसाया और केंद्र की भाजपा सरकार के सामने कानून व्यवस्था को चुनौती दे डाली। इन स्वयंभू किसान नेताओं के भावनात्मक जंजालों में सामान्य किसान भी उलझे तो उनका सम्मान रखते हुए केंद्र सरकार को तीनों कृषि कानून वापस लेने पड़ गए। अब सवाल यह उठता है कि आज हमें इन तीनों कानून की स्मृति अचानक क्यों हो आई। मसला यह है कि आजकल सब्जियों के भावों में व्यापक स्तर पर मानो आग लगी हुई है। हालांकि सब्जियों की पैदावार संतोषजनक है। आपूर्ति और मांग के बीच भी संतुलन बना हुआ है। फिर भी जो सब्जियां 10 से40 रुपए प्रति किलो के बीच बिकना चाहिए थीं, उनके भाव 50 से 100 रुपए प्रति किलो तक पहुंच गए हैं। जबकि लहसुन और धनिया जैसे बारहमासी मसाले 200 से 400 रुपए प्रति किलो तक बेचे जा रहे हैं। ऐसे में लोगों को लगता होगा कि किसानों की भारी कमाई हो रही है। आम आदमी को जो महंगी दर पर सब्जी उपलब्ध हो पा रही है, उस हिसाब से ऐसा सोचा जाना गलत भी नहीं है। लेकिन वास्तविकता इससे बहुत ज्यादा अलग है। जमीनी स्तर पर जो सच्चाई सामने आ रही है, उसके अनुसार किसानों को उनकी सब्जी भाजी के विक्रय मूल्य का अधिकतम एक चौथाई धन ही प्राप्त हो पा रहा है। इस पूरे गोरख धंधे में असली मलाई वह आढ़तिया और मुनाफाखोर व्यापारी उड़ा रहे हैं जो किसानों से सस्ते दामों पर खरीदी कर रहे हैं और फिर उसे महंगी दरों पर फुटकर विक्रेताओं को बेचा जा रहा है। किसानों की मजबूरी यह है कि उसे पुरातन कृषि कानून के चलते अपनी उपज मंडी प्रांगण में ही नीलामी के माध्यम से बेचनी है। यहां जो किसान तत्काल प्रभाव से अपनी फसल को नीलम करा पाते हैं ऐसे सामर्थ्यवान लोगों की तादाद बेहद कम ही है। ज्यादातर किसानों को आंशिक भुगतान देकर आढ़तियों द्वारा उनकी उपज पर कब्जा कर लिया जाता है और फिर भारी भरकम दामों पर बेचकर अनाप-शनाप मुनाफा कमाया जा रहा है। फल स्वरुप एक ओर सब्जियां पैदा करने वाला किसान भारी आर्थिक नुकसान का शिकार हो रहा है, वहीं आम जनता को महंगी दरों पर सब्जियां खरीदनी पड़ रही हैं। यही वह तकलीफ देह परिदृश्य है जो भाजपा शासन द्वारा पहले लागू करके बाद में वापस लिए गए तीन कृषि कानूनों की याद दिलाता है। दरअसल लंबे सर्वेक्षण के बाद भाजपा सरकार इस नतीजे पर पहुंची थी कि जब तक किसानों को मंडी में ही सब्जी बेचने की मजबूरी से आजाद नहीं किया जाएगा तब तक उसका आर्थिक शोषण होना तय है। अतः तीन नए कृषि कानूनों में यह प्रावधान किया गया था कि किसान स्वेच्छा से मंडी में अपनी फसल बेचना चाहिए तो उसे कोई रोक-टोक नहीं है। वर्ना वह अपने मनपसंद व्यापारी को, जहां से उसे अधिकतम मूल्य प्राप्त हो रहा हो वहां कहीं भी अपनी फसल दे सकता है। किसान हित में यहां तक प्रावधान किए गए थे कि वह खेत में बुवाई के समय भी अपनी फसल का अनुमानित सौदा किसी बड़े खरीददार अथवा व्यापारी से कर सकेगा। वह उस राशि को प्राप्त करने का अधिकारी रहेगा जो उसके और खरीदार के बीच संपन्न अनुबंध में लिखी गई होगी। किसान को समय और परिस्थिति अनुसार उक्त अनुबंध से बाहर निकालने की सुविधा भी नए कृषि कानूनों में दी गई थी। लेकिन तब यह बात किसानों की समझ में नहीं आई। अफसोस तो इस बात का है कि मध्य प्रदेश में भी किसानों और मजदूरों के एक संगठन द्वारा स्थानीय कृषकों को उकसाने और भड़काने का भारी पैमाने पर प्रयास किया गया। यह बात और है कि अधिकांश किसान जागरूक बने रहे और उन्होंने कृषि कानूनों के खिलाफ मध्य प्रदेश में कोई बड़ा बखेड़ा खड़ा नहीं किया। लेकिन पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा और पंजाब के स्वयंभू किसान नेताओं ने आढ़तियों और मुनाफाखोर व्यापारियों से भारी फंडिंग प्राप्त कर एक कृत्रिम आंदोलन देश की राजधानी में खड़ा किया और राष्ट्रीय स्तर पर यह संदेश फैलाने में सफल रहे कि इस आंदोलन को छोटे एवं मझोले किसानों का समर्थन भी प्राप्त है। वहीं विरोधी राजनीतिक दलों ने भी बहती गंगा में हाथ धोने में देर नहीं लगाई। कांग्रेस समेत इंडि गठबंधन के अधिकांश सियासी दल कृषि कानूनों को खिलाफ माहौल बनाने में प्राण पन से जुड़ गए। नतीजा यह निकला कि अच्छी खासी तैयारी के साथ किसानों के हित में लाए गए तीनों कृषि कानून को भाजपा सरकार द्वारा वापस लेना पड़ गया। अब जब सब्जी, भाजी, फल फ्रूट, दलहन, तिलहन एवं अनाज जैसी विभिन्न फसलों की बिक्री में किसानों का आर्थिक शोषण हो रहा है। दूसरी ओर उपभोक्ता भी इनके दाम चुका नहीं पा रहा है, तब मुनाफाखोर आढ़तिये और व्यापारी दोनों हाथों से चांदी काट रहे हैं। ऐसे में किसानों को यह समझने की आवश्यकता है कि देर से ही सही, उसे भाजपा शासन द्वारा पारित किए गए और फिर बाद में वापस ले लिए गए तीनों कृषि कानून का बारीकी से अध्ययन करना चाहिए। पर्याप्त अध्ययन के बाद यदि उन्हें ऐसा लगता है कि वाकई में यह कानून उनके पक्ष में थे, तो अब उन्हें लागू करने के लिए भाजपा शासन के साथ खड़ा होना चाहिए। इसी में किसने और उपभोक्ताओं की भलाई है।

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