विद्वानों का एक बड़ा वर्ग धर्म को संप्रदाय अथवा समुदाय से जोड़कर देखता रहा है। उदाहरण के लिए – जब कभी भी व्यक्ति समाज या किसी समूह से उसके संप्रदाय के बारे में पूछना या संबोधित करना होता है तो अमूमन यही कहा जाता है कि अमुक व्यक्ति अथवा समाज किस धर्म से संबंधित है। वह फलां धर्म का है। उसका धर्म यह है। जबकि हिंदू संस्कृति में धर्म का आशय दायित्व अर्थात दायित्व बोध के रूप में भी स्थापित है। जैसे संतान का दायित्व है अपने माता-पिता की सेवा करना, यही उसका धर्म है। माता-पिता का दायित्व है संतान का पालन पोषण और संरक्षण करना यह उनका धर्म है। गुरु का दायित्व है अपने शिष्यों को शिक्षित करना, उनके भीतर संस्कार स्थापित करना, यह उनका धर्म है। लिखने का आशय यह है कि हिंदू जीवन दर्शन में अनेक स्थानों पर धर्म और दायित्व को एक दूसरे का पर्यायवाची भी माना गया है। यही वजह है कि अनेक विद्वान संत प्रवक्ता एवं कथावाचक धर्म को व्यापक अर्थ से युक्त शब्द बताते हैं। इसे केवल व्यक्ति की जाति संप्रदाय से जोड़कर सीमित नहीं किया जा सकता। धर्म का संबोधन दायित्व बोध के रूप में व्यापकता को प्राप्त होता है। ऐसा मानना है कि यदि व्यक्ति को अपने दायित्वों का बोध हो जाए तो फिर वह धर्म सम्मत कार्य ही करता है। इसे यूं भी कहा जा सकता है कि जिसे दायित्व का बोध हो जाए वह अधार्मिक हो ही नहीं सकता। अतः अपने व्यवहार में हमें अपने दायित्वों के बोध को धर्म मानकर यह चिंतन करने की आवश्यकता है कि हमें जो करना चाहिए था, क्या हम वह कर पाए ? यदि नहीं कर पाए तो फिर अंतर्मन से उस कमी अथवा चूक को स्वीकार किया जाए तथा उसमें सुधार करते हुए फिर विधिवत अपने दायित्वों का निर्वहन हो, तो किया गया कार्य धर्म सम्मत ही कहा जाता है। यानि यदि हमें दायित्वों का बोध है तो फिर हम उस कार्य से कभी मुंह मोड़ ही नहीं सकते, जिसे हमें करना चाहिए होता है। लेकिन यदि हम अपने दायित्वों के प्रति लापरवाह हैं, फिर भी यह दावा करते हैं कि हम धार्मिक हैं तो फिर इसे मिथ्या कथन ही कहा जाएगा। इसे विस्तार से समझते हैं। अभी हाल ही में गणेश उत्सव और नवरात्रि के पावन पर्व संपन्न हुए। इस दौरान घरों में और सार्वजनिक स्थलों पर लाखों मूर्तियां स्थापित हुईं और फिर उन्हें विधि विधान से विसर्जित भी कर दिया गया। बस यहीं पर हम अपने दायित्वों के प्रति एक बड़ी चूक कर बैठे। इस बड़ी गलती का नाम है, अपने ही जल स्रोतों को धार्मिक कर्मकांडों के नाम पर प्रदूषित करना। हमने जितनी भी मूर्तियां स्थापित कीं, उनके बारे में मूर्ति निर्माता से अधिकांशतः यह जानने का प्रयास ही नहीं किया कि वह अपने सृजन में जल को प्रदूषित करने वाले तत्वों का इस्तेमाल तो नहीं कर रहा ? दावे के साथ कहा जा सकता है कि हम इस ओर से उदासीन ही बने रहे। इसका प्रमाण यह है कि बाजारों में बड़े पैमाने पर प्लास्टर ऑफ पेरिस यानी पीओपी की मूर्तियां बिकने आईं तथा आकर्षक होने पर इन्हें भक्तों ने भारी पैमाने पर पसंद किया एवं खरीदा भी। इसी प्रकार जब मिट्टी की मूर्तियां घरों एवं झांकियों में स्थापित की गईं, तब इन्हें आकर्षक बनाने के लिए केमिकल युक्त रंग ही सबसे अधिक प्रयोग किए गए। नतीजा यह निकला कि जब प्लास्टर ऑफ पेरिस की मूर्तियां विसर्जित की गईं, तब यह पानी में गली नहीं और अपने मूल आकार में ही जल स्रोतों में बनी रहीं। वहीं अधिकांश मूर्तियों में प्रयुक्त हुआ केमिकल युक्त रंग पानी को बड़े स्तर पर प्रदूषित करता रहा। यह लिखते हुए अफसोस होता है कि निरंतर शिक्षित हो रहा हमारा समाज अधिकांशतः यह जान गया है कि प्लास्टर ऑफ पेरिस तथा केमिकल युक्त रंग वाली मूर्तियां जल एवं पर्यावरण प्रदूषण का कारण बन रही हैं। इसके बावजूद भी हम इनका भारी स्तर पर पूजा पाठ में प्रयोग कर रहे हैं और फिर पूरी ढिठाई के साथ उनका जल स्रोतों में विसर्जन भी कर रहे हैं। नतीजा यह है कि यही प्रदूषित जल हमारे पीने के काम आ रहा है और इसका खेती एवं बागवानी में खुलकर इस्तेमाल हो रहा है। जाहिर है इसमें समाये हुए घातक रसायन हमारे स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचा रहे हैं एवं जल स्रोतों को उथला भी बना रहे हैं। यह जानकर आश्चर्य होगा कि इतना सब जानकारी में होने के बावजूद गणेश उत्सव और नवरात्रि से पहले भारी पैमाने पर प्लास्टर ऑफ पेरिस की मूर्तियां बनती रहीं। इनमें रासायनिक रंगों का इस्तेमाल होता रहा। लेकिन प्रशासनिक स्तर पर भी इसका विरोध देखने को नहीं मिला और ना ही इसके खिलाफ कोई कार्रवाई ही की गई। जहां तक राजनेताओं की बात है तो इस वर्ग का काम जनहित से अधिक जनरंजन ही होता आया है। इन्हें लगता है कि यदि जनहित में किए गए प्रतिरोधात्मक कार्य से जनमानस में आक्रोश उत्पन्न हो सकता है तो फिर राजनेता उस कार्य से किनारा करते हुए वह सब करने लगते हैं जो भले ही जनता के लिए नुकसानदायक हो, लेकिन उसे अच्छा लगने लगता है। इसे ही जनरंजन कहते हैं। अब यदि गौर करें तो लोकतांत्रिक देश में न्यायपालिका, विधायिका, कार्यपालिका और मीडिया, ये चार पायदान महत्वपूर्ण माने गए हैं। लोकतंत्र के इन चार स्तंभों में से विधायिका और कार्यपालिका अपने दायित्वों से पलायन करते दिख रहे हैं। मीडिया के वश में केवल चिल्लपों मचाना है, सो वह अपना कार्य कर रही है। यह बात और है कि उस पर न्यायपालिका और कार्यपालिका का ध्यान है ही नहीं। रह गई न्यायपालिका तो वहां तक जनहित की बजाय राजनीतिक लाभ हानि के मामले ही ज्यादा पहुंचते हैं। घूम फिर कर दायित्व बोध अर्थात धर्म का दारोमदार जनता के हिस्से में आ जाता है। अतः उसे यह समझना होगा कि अपनी भलाई के लिए उसे स्वयं ही जागरूक होना पड़ेगा।