मुख्यमंत्री की मंशा अनुरूप कार्य करे नौकरशाही तो सजे संवरे भोपाल

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राजधानी के नजरिए से देखा जाए तो भोपाल महानगर मध्य प्रदेश का चेहरा भी है और पहचान भी। जो भी पर्यटक, व्यवसायी, उद्योगपति अथवा अन्य यात्री विभिन्न प्रदेशों से हमारे यहां पहुंचते हैं, तो भोपाल की अबो हवा, यहां का रखरखाव देखकर अनुमान लगाने का प्रयास करते होंगे की जिस प्रदेश की राजधानी ऐसी है तो फिर बाकी प्रांत के क्या हाल होंगे। यह बात इसलिए लिखने की बाध्यता हुई, क्योंकि प्रांतीय राजधानी होने के बावजूद भी भोपाल के हाल बेहतर नहीं हैं। यातायात की दृष्टि से देखें तो ड्राइविंग लाइसेंस होल्डरों को देखकर लगता ही नहीं कि आरटीओ ने उन्हें ड्राइविंग लाइसेंस प्रशिक्षण और परीक्षण के बाद ही दिए होंगे। इसके बावजूद पूरे महानगर की पुलिस केवल हेलमेट और फोर व्हीलर के सेफ्टी बेल्ट चेक करने के उपक्रम में लगी रहती है। इस विभाग ने कभी यह जहमत उठाई ही नहीं की यातायात के नियम तोड़ रहे और दूसरे लोगों के लिए आफत साबित हो रहे बदतमीज किस्म के राइडर्स एवं फोर व्हीलर चालको की मुश्कें भी कसी जाएं। जहां तक सड़कों और रास्तों की बात करें तो इस मामले में भी नौकरशाही सरकार की मंशा पर चलती दिखाई नहीं देती। पूरे साल कहीं ना कहीं मुख्य सड़कों अथवा विभिन्न रास्तों के निर्माण चलते ही रहते हैं। लेकिन इनकी निर्माण सामग्री इतनी घटिया है कि एक ओर निर्माण कार्य पूर्णता को प्राप्त होने शुरू होते हैं, तो दूसरी ओर से उनमें गड्ढे होना शुरू हो जाते हैं। निर्माण सामग्री धूल बनकर वातावरण में फैलने लगती है। लिहाजा पर्यावरण को भारी नुकसान इस वजह से भी पहुंचता दिखाई देता है। सफाई व्यवस्था की तो बात ही निराली है। जब स्वच्छ भारत के तहत अखिल भारतीय स्तर पर रैंक हासिल करनी हो, तब अधिकांश उन्हीं जगहों पर फोकस किया जाता है जो सतहित तौर पर नजर डालते ही दिखाई देने लगती हैं। पर्यवेक्षक भी उन जगहों पर नहीं पहुंचते जहां 12 महीने गंदगी सड़ांध मारती रहती है और आसपास के लोग स्वास्थ्य के लिए घातक माहौल में जीने के लिए मजबूर बने रहते हैं। इसके बावजूद हमारा महानगर टॉप 10 की श्रेणी में आ जाता है, यह शोध का विषय है। विकास की प्लानिंग को लेकर भी यहां अध्ययन का अभाव स्पष्ट दिखाई देगा। महानगर के अधिकांश चौराहे पीक अवर्स में जाम के शिकार बने रहते हैं। किसी को बस पकड़नी हो, रेलवे स्टेशन जाना हो या फिर एंबुलेंस को जल्दी से जल्दी अस्पताल पहुंचना हो, भोपाल में जाम के चलते उपरोक्त सभी कार्य सदैव ही संकट पूर्ण बने रहते हैं। दुख की बात यह है कि अधिकांश चौराहों से पुलिस बल और खास कर यातायात का अमला नदारत बना रहता है। यहां की ट्रांसपोर्ट व्यवस्था भी बड़ी निराली है। सुबह देर से शुरू होती है रात गहरी होने से पहले खत्म होने लगती है। नतीजा यह है कि हर भोपाली अपने व्यक्तिगत वाहन पर निर्भर है और वह इसी पर विश्वास रखता है। क्योंकि इस शहर में यह आशंका सदा बनी रहती है, पता नहीं कब कौन से रूट की बस कैंसिल हो जाए और यात्रियों को वैकल्पिक साधनों से सफर करने के लिए मजबूर होना पड़ जाए। व्यवस्थित ट्रांसपोर्टेशन व्यवस्था के अभाव में, सड़कों पर निजी वाहनों का अंबार बड़ा कारण है। राजधानी का मेट्रो रेल प्रोजेक्ट मध्य प्रदेश शासन का महत्वाकांक्षी लक्ष्य है। लेकिन गजब है हर 4 -6 महीने बाद लोकार्पण की नई तिथि घोषित की जाती है और फिर उसे बाद में बार-बार बढ़ा दिया जाता है। पिछले विधानसभा चुनाव के पहले स्वयं मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने इसे हरी झंडी भी दिखा दी। लेकिन आश्चर्य है अभी तक इंजन समेत सभी सवारी डब्बे यार्ड की शोभा बढ़ा रहे हैं। मेट्रो का रास्ता बनाने की जद्दोजहद में सालों गुजर चुके हैं और दावे के साथ कहा जा सकता है अभी कई साल और लगेंगे। नतीजा यह है कि बगैर किसी सुनियोजित प्लानिंग के यह सब कार्य बेतरतीब तरीके से चल रहा है। फल स्वरुप आवागमन में परेशानी हो रही है तथा वातावरण प्रदूषित हो रहा है। अतिक्रमण को स्थानीय लोगों ने अपना भाग्य मान लिया है। जो जितना अधिक सामर्थ्यवान है वह सरकारी जमीनों, नालियों, नालों, पार्कों, पार्किंगों, फुटपाथों, साइकिल ट्रैकों आदि पर उतने ही व्यापक पैमाने पर कब्जा करने के लिए स्वयंभू अधिकृत बना हुआ है। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ मोहन यादव एक नहीं, अधिक बार मीटिंग लेकर नौकरशाहों की उदासीन कार्य प्रणाली पर फटकार लगा चुके हैं। उन्हें देर रात तक अपने कार्यालय में ठहरकर पेंडिंग कार्य निपटने की सजा भी देते रहे हैं‌। इसके बावजूद विकास कार्यों में हीला हवाला समझ से परे है। मध्य प्रदेश की बात करना तो बेमानी ही है। फिलहाल यह लिखने में कोई गुरेज नहीं कि भोपाल को साफ सुथरा और व्यवस्थित बनाने के लिए यहां की प्रशासनिक और पुलिस मशीनरी के साथ-साथ विभिन्न विभागीय अमले को मध्य प्रदेश शासन की मंशा अनुरूप कार्यों को अंजाम देने की आवश्यकता है।

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